Tuesday 9 February 2010

मराठी माणूस के दर्द को खुले दिमाग से समझने की कोशिश तो करो

पानीपत के तीसरे युद्ध में अफगान सेनानी अब्दाली के खिलाफ हिंदुस्तान की तरफ से लड़ते हुए मराठा साम्राज्य के 55,000 सैनिकों ने अपना बलिदान दिया। महाराष्ट्र में ऎसा कोई घर बचा नही था, जहां का कोई मरा ना हो। भारत के स्वातंत्र्य का इतिहास भी मराठियों के बलिदान से भरा पड़ा है। और, फिर भी आज सभी लोग यह बात कह रहे हैं की मराठी लोग संकुचित मानसिकता रखते हैं! आज जो भारत हम देख रहे हैं, उसमें पंजाब, बंगाल जैसे राज्यों सहित मराठियों का भी बहुत बडा योगदान रहा है। अगर आप ये बात नही मानते, तो मुझे वाकई यह कहना पड़ेगा कि आपने अपनी आखों पर पट्टी बांध कर खुद ही संकुचित मानसिकता बना रखी है।

थोडी देर के लिए मान लिजिए कि पटना मुंबई की जगह देश की आर्थिक राजधानी है और महाराष्ट्र एक कंगाल राज्य है, जहां के लोगों को अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिये बिहार-पटना जाना पडता है। पटना के लोग बहुत अच्छे और सुसंस्‍कृत हैं। वो भुखे-कंगाल मराठियों का स्वागत करते हैं, तो मराठी पटना-बिहार में झोपड़पट्टियां बनाकर रह जाते हैं क्योंकि उनके पास अपना घर लेने के लिये पैसे तो होते नहीं। फिर क्या होता है? बिहार सरकार 15 सालसे बिहार में रह रहे मराठी लोगों को वो झोपड़पट्टी की गैरकानूनी जगह उन्‍हीं के नाम से कानुनी करके दे देती है और उस जगह उनके लिये मुफ्त मे फ्लैट्स भी बना कर दे दिये जाते हैं। बिहारी लोगों से टैक्स लेकर ‘बेचारे भारतीय मराठी’ लोंगों के लिये लाइट और पानी भी मुफ्त मे मुहैया करवाया जाता है क्योंकि बिहार के नेताओं को भी मराठी वोट बैंक चाहिये।

ये मराठी लोग बिहार में सिर्फ मराठी में ही बात करते है क्योंकि वो भी भारत की भाषाओं में से एक है और वो भोजपुरी और हिंदी समझने की कोई जरुरत महसूस ही नही करते। बिहार के मध्यमवर्गीय सु्संस्‍कृत लोग परिवार नियोजन कर जनसंख्या पर नियंत्रण पाते हैं। पर क्या करें? ये मराठी रेल भर-भर कर फिर पटना-बिहार आकर बस जाते हैं। देखते-देखते पटना में मराठियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि बिहार के लोग पटना में ही सिर्फ 40 प्रतिशत से से कम होकर रह गये। पटना के हर दुकान पर मराठी अक्षर दिखने लगे। पटना पर मराठियों का ये प्रभाव देखते हुए महाराष्ट्र के राजकीय नेता पटना जाकर मराठियों को उकसाने लगे। उनकी मदद के लिये पटना में कई दशकों से रह रहे मराठी नेता भी थे। सार्वजनिक गणेशोत्‍सव रखने लगे। पटना-बिहार में महाराष्ट्र दिन मनाने लगे। अब पटना-बिहार से मराठी नेता चुनकर आने लगे। कुछ ने तो कई विधानसभा सीटें मराठियों के लिये आरक्षित करने की मांग भी कर डाली। 

ज्यादातर मराठी लोग अशिक्षित और ‘बेचारे भारतीय गरीब’ थे, तो उनमें से कुछ ने गुनाह का मार्ग भी अपनाया। बिहार में कुछ रोजगार के अवसर बन भी गये, तो मराठी लोगों ने उसे पा लिया क्योंकि वो इतने गरीब थे कि किसी भी कीमत पर वो कितना भी काम कर सकते थे। आखिर कुछ ना मिलने से कुछ मिलना बेहतर! ‘फिर भी बिहार के लोग शांत रहे और मराठियों का आदर-सम्‍मान करते रहे... अरे भाई! आखिर हम सब भारतीय भाई-भाई हैं।’ क्या ये आखरी पंक्ति आपको विसंगत नही लगती? 

अच्छा तो... अब मानिये कि मराठी के लिये ये असंतोष हर बिहारी के मन में धीरे-धीरे उपजने लगा और उनको राज ठाकरे जैसा नेता मिला। तो, क्या वो उनको सपोर्ट नही करेंगे? बिहारी लोग उस नेता को सपोर्ट करने लगे। तभी मराठी मीडिया सारे देश मे ये बवाल पैदा करने लगी कि ये नेता देशद्रोही है क्योंकि वो ‘भोले गरीब मराठी’ लोगों को बिहार से भगाना चाहता है। सारे देश के लोग, नेता और मीडिया बिहार के लोग और उनके नेताओं के खिलाफ बोलने लगे। उन्हें देशद्रोही करार देने लगे, उन्हे संविधान का पाठ पढ़ाने लगे।

पहले अपने दिल पर हाथ रखो और जरा ध्यान से अपने आपको हमारी (मराठी) जगह महसूस करके देखो... आपको पता चलेगा कि हम अन्याय की परिसीमा झेल रहे हैं। इसे तो ‘मुंह बंद कर मारना’ कहते हैं। क्या हमें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार तक नही? हम ‘वेल क्‍वालिफाइड बिहारियों’ का स्वागत करते हैं, लेकिन झोपड़पट्टियों का नही। आखिर, हमारे सहनशीलता की भी कोई सीमा है। आप इस बात को क्यों नही समझ रहे?

सबसे महत्त्वपूर्ण बात, जो मैंने इन दिनों महाराष्ट्र में देखी है कि बहुत सारे लोग शुरुआती दिनों में राज ठाकरे के बिलकुल खिलाफ थे, लेकिन जब उन्होंने हिंदी न्यूज चैनलों पर मराठियों का, महाराष्ट्र के लोगों का अपमान होते देखा, उन्हें देशद्रोही कहते देखा, राज ठाकरे के मराठी भाषण को गलत तरीके से हिंदी में सनसनी बनाकर पेश करते देखा, तब वो भारतीय से पहले महाराष्ट्र के बन गये और राज ठाकरे के साथ जुड़ गये। आज गायक अभिजीत जो खुद उत्तर प्रदेश से हैं, वो महाराष्ट्र की तरफसे क्यों बोल रहे है? क्योंकि बात सिर्फ भाषा की नही बल्कि, ‘अच्छे तरीके से जीने के हक से जुड़ी हुई है।’ इस बात को आप जरा समझो। अगर राज ठाकरे सिर्फ राजनीती कर रहे होते, तो उन्हे इतना सपोर्ट नहीं मिलता। वो कब का पीछे छुट गये होते। वाकई महाराष्ट्र के लोग बाहर से आने वाले लोगों के कारण रोजाना जीवन में तनाव महसुस कर रहे हैं। व्यक्ति खुश तो परिवार खुश, परिवार खुश तो समाज खुश, समाज खुश तो राज्य खुश, राज्य खुश तो देश खुश! देश सबसे आखिर मे आता है और उसके बाद ये पृथ्वी।

अगर आपके खुद के घर के कोने में खाली सी जगह देखकर कोई हमेशा के लिये आपका सम्‍मान न करते हुए हक से रहने लगे, बाद में वो वहां रहने के लिये अपने रिश्तेदार भी बुलाये, फिर वो भी हमेशा के लिये हक से वही रहने लगे... तो आपको अपने खुद के घर में रहने के लिये कितनी जगह बचेगी? और, आपकी वह जगह अगर धीरे-धीरे उन्‍हीं के नाम से हो जाये... तो फिर भी क्या आप खुद पर और इस समाज व्यवस्था पर गर्व महसुस करेंगे?

Saturday 6 February 2010

छा गयी शिवसेना! सही मायनों मे यह तो शिवसेना की बडी जीत है!

शुक्रवार को दिनभर जो टीवी पर देखने को मिला, वो बहुत ही दिलचस्‍प था और इससे तो यह भी साफ हो गया की हिंदी सहित सभी न्यूज वालों ने सिर्फ वही दिखाया, जो वो दिखाना चाहते हैं। खैर हिंदी न्यूज वालों की टीआरपी की अपनी अलग राजनीति है। लेकिन, शुक्रवार को कल जो टीवी पर दिनभर दिखाया, वो दिखाते-दिखाते उनको यह भी पता नहीं चला की असल मॆं वो मराठी माणूस और शिवसेना की जीत दिखा रहे हैं! कैसे? मैं ये खुल के बताता हूं...

मुद्दा 1: क्या कहा रा्हुल ने?

‘जब मुंबई में आतंकी हमले हुए, तो उस समय मुंबई को बचाने के लिए बिहार-यूपी के लोग आगे आए। उन्होंने आतंकियों से लोहा लिया।’ (बाद में उन्होंने अपने वक्तव्य में सुधार किया)

हम राहुल गांधी को देश के युवराज के तौर पर देखते हैं। वो ऎसा गैरजिम्मेदाराना विधान कैसे कर सकते हैं? क्या आपको इस विधान मॆं कोई राजनीति नजर नहीं आती? क्या हेमंत करकरे, आशोक कामटे, विजय सालसकर, तुकाराम ओंबले ये मराठी पुलिस अफसर उस वक्त शहीद नही हुए? क्या एन.एस.जी. मॆं मराठी नही हैं? क्या ये मराठियों का अपमान नहीं? राहुल गांधी ने बिहार मॆं अपनी राजनीति चमकाने के लिये मराठियों का अपमान किया, ये सच कोई नही नकार सकता।

मुद्दा 2: जब राहुल मुंबई आए... क्या कहा शिवसेना ने?

शिवसेना ने राहुल गांधी के कार्यक्रमों को होने न देने का या मुंबई बंद का, ऎसा कोई भी ऎलान बिलकुल भी नहीं किया था, बल्कि उन्होंने संवैधानिक मार्ग से राहुल गांधी को सिर्फ काले झंडे दिखाकर अपना विरोध प्रदर्शित करने का ऎलान किया था। लेकिन, हिंदी मीडिया ने अपनी टीआरपी की राजनीति चमकाने के लिए उस पर राहुल बनाम ठाकरे का रंग चढाया। 

मुद्दा 3: क्या दिखाना चाहती थी हिंदी मीडिया?

हिंदी मीडिया ने राहुल गांधी को बिना वजह सिर्फ अपने फायदे के लिये हिंदीभाषी लोगों के नायक के रुप मे पेश किया और शिवसेना को मराठी भाषी खलनायक के रुप में। इससे उन्हें टीआरपी का बहुत बडा फायदा मिलने वाला था।

मुद्दा 4: इतनी सुरक्षा क्यों?

अगर शिवसेना का कोई वजूद नही है, तो सुरक्षा के लिये 22,500 यानि महाराष्ट्र के आधे पुलिसकर्मी क्यों लगाये गये? क्यों एक रात पहले शिवसैनिकों को जेल मे डाला गया? राहुल गांधी ने क्यों ऎन वक्त पर अपना मार्ग बदला? बदुंकधारी सुरक्षाकर्मियों के घेरे मॆं लोकल से प्रवास करके राहुल गांधी ने मुंबई की सारी समस्याएं सुलझा दी? और, वैसे भी शिवसेना ने उनके कार्यक्रम मॆं अड़चन पैदा करने की बात नहीं की थी, बल्कि उन्हें संवैधानिक तरीके से सिर्फ काले झंडे दिखाने की बात की थी। इस पर हमें खासतौर पर गौर करना चाहिये।

यह सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। कॄपया ध्यान से पढें

हिंदी मीडिया के मुताबिक, राहुल गांधी हिंदीभाषियों के नेता या हीरो के तौर पर सामने लाए गए। इसका मतलब असंख्य हिंदी भाषी लोगों का प्रतिनिधित्‍व राहुल गांधी कर रहे थे। अगर इसे कुछ देर के लिये सच भी माना जाये, तो...

जब असंख्य हिंदी भाषी लोग शिवसाना के काले झंडे उन्हीं हिंदी न्यूज चैनल के जरिये लाइव देख रहे थे, तब हिंदी मीडिया के मुताबिक उनका प्रतिनिधित्‍व कर रहे राहुल गांधी 22500 पुलिसकर्मियों के घेरे मॆं उन काले झंडों को देखें या न देखें, उससे क्या फर्क पडता है? हिंदी न्यूज मीडिया बहुत ही हास्यास्‍पद है, इसमें तो कोई शक नहीं।

मुझे मेरे भारत से बहुत प्यार है और मुझे तब तकलीफ होती है, जब हिंदी न्यूज मीडिया सिर्फ टीआरपी और पैसों के लिये सही मुद्दों को गलत तरीके से लोगों के सामने पेश करती है। असल में यह मेरा साफ मानना है कि मेरे महान भारत देश को तोड़ने का काम कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि यह हिंदी न्यूज मीडिया की राजनीति ही करती है।